यह व्रत करने से होती है शिव की कृपा, मिलता है मनवांछित फल

प्रदोष व्रत के महात्म्य सबसे पहले भगवान शंकर ने माता सती को सुनाया था। उसके बाद महर्षि वेदव्यास जी ने वेदों के ज्ञाता और भगवान के भक्त सूतजी को सुनाया। सूतजी ने शौनकादि ऋषियों को सुनाया था। सूतजी ने कहा है कि कलियुग में जब मनुष्य अधर्म की राह पर जा रहा होगा, अन्याय और अनाचार का बोलबाला होगा। मानव अपने कर्तव्य से विमुक्त होगा तब प्रदोष व्रत ऐसा व्रत होगा जो मानव को शिव की कृपा का पात्र बनाएगा। इस व्रत के करने से मनुष्य के सभी तरह के पाप और कष्ट दूर हो जाएंगे। यह व्रत कल्याणकारी है और इसके करने से मनवांछित फल की प्राप्ति होगी। 
प्रदोष काल में देवों के देव महादेव की पूजा की जाती है और उनके निमित्त व्रत रखा जाता है। शिव भक्त प्रदोष का नियमित व्रत रखते है और प्रदोष काल में भोले की विशेष पूजा अर्चना करते है। हिंदू कलेण्डर के अनुसार, हर महीने दो बार कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में त्रयोदशी यानी तेरस आती है। त्रयोदशी तिथि में सूर्यास्त के बाद का समय प्रदोष कहा जाता है। कहा जाता है कि प्रदोष काल में भगवान शिव कैलाश पर्वत स्थित रजत भवन में नृत्य करते है और देवता उनका गुणगान करते है। प्रदोष काल सूर्यास्त के बाद के 2 घण्टे 24 मिनट का होता है। 


प्रदोष की पौराणिक कथा (Pradosh ka vrat)


पौराणिक कथा के अनुसार, चंद्रमा का विवाह दक्ष प्रजापति की 27 नक्षत्र कन्याओं के साथ संपन्न हुआ था। इनमें रोहिणी बेहद खूबसूरत थी और उस पर चन्द्रमा का विशेष स्नेह था। यह देखकर अन्य नक्षत्र कन्याओं ने इसकी शिकायत अपने पिता दक्ष प्रजापति से की। प्रजा​पति को क्रोध आ गया और उन्होंने चन्द्रमा को क्षय रोग से ग्रसित होने का श्राप दे दिया। श्राप से चन्द्रमा धीरे—धीरे क्षीण होने लगा। मृत्यु के नजदीक पहुंचे चन्द्रमा की केवल एक धारी बची थी। तभी उन्होंने नारद जी के कहने पर भगवान शिव की उपासना की। शिव ने प्रसन्न होकर चन्द्रमा का स्वस्थ होने का वरदान दिया और उसे अपने मस्तक पर धारण किया। भगवान ने जिस समय चन्द्रमा का मस्तक पर धारण किया था उस समय को प्रदोष कहते है। 


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