होली का डांडा रोपण के साथ थम जाते है शुभ काम, शुरू होती है मस्ती

होली से ठीक एक महीने पहले होली का डांडा रोपण होता है। माघ माह की पूर्णिमा के दिन शुभ मुहूर्त में विधि विधान से होली का डांडा रोपा जाता है। 
होली (Holi) का डांडा रोपण के साथ ही इस त्यौहार की मस्ती (Masti) का आगाज हो जाता है। हालांकि वक्त के साथ कई परम्पराएं बदल रही हैं। होली जैसा महत्वपूर्ण पर्व पहले महीने भर तक मनाया जाता था। अब महज दो दिन का बनकर रह गया है। 

परम्परा के अनुसार, होली का आगाज डांडा रोपण (Holi ka Danda) से होता है। आज भी यह परम्परा कई जगह निभाई जाती है। जिस स्थान पर होली दहन होता है वहां एक बड़ा सा डंडा लगाया जाता है। यह डंडा भक्त प्रहलाद का प्रतीक होता है। होली का दहन से ठीक पहले इसे सुरक्षित निकाल लिया जाता है। 

होली फाल्गुन में पूर्णिमा को मनाई जाती है। इससे एक महीने पहले यानि माघ पूर्णिमा को यह डंडा विधि विधान से लगाया जाता है। प्राचीन मंदिर, पूर्व राजघरानों तथा ग्रामीण इलाकों में इस परम्परा को​ आज भी निभाया जाता है। अधिकांश जगह होलिका दहन के कुछ समय पहले यह डंडा लगाकर खानापूर्ति कर ली जाती है। 

होलिका दहन चंदे से होता है। इसके लिए चंदा जुटाने का काम भी होली का डांडा रोपे जाने के बाद शुरू हो जाता था। टोलियां मोहल्ले या गांवों में घूम-घूम कर चन्दा तथा होलिका दहन में दहन किए जाने वाले सामान को जुटाती थीं।

टल जाते है शुभ कार्य 


होली फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाई जाती है। होली दहन से एक महीने पहले कोई शुभ कार्य एवं विवाह नहीं होते। होली का डंडा रोपण के साथ ही शुभ कार्यों और विवाह पर विराम लग जाता है। होलिका दहन के बाद शुभ काम शुरू होते है। 

होली की कथा 

पौराणिक कथा के अनुसार हिरणकश्यप भक्त प्रहलाद का वध करने के लिए अपनी बहन होलिका के साथ अग्नि स्थान में बैठा देता है। भगवान के आशिर्वाद से प्रहलाद बच जाते है और होलिका जल जाती है। होलिका को अग्नि में नहीं जलने का वरदान प्राप्त था।



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