मौनी अमावस्या किया जाता है मौन व्रत

माघ माह का महत्व कार्तिक मास की तरह ही है। यहीं वजह है कि इस माह आने वाली अमावस्या भी खास है। इसे मौनी अमावस्या कहते है। मुनि शब्द से ही 'मौनी' की उत्पत्ति हुई है। इसलिए इस व्रत को मौन धारण करके समापन करने वाले को मुनि पद की प्राप्ति होती है। दरसअल मौनी अमावस्या का यह व्रत योग पर आधारित होता है। इस व्रत के करने से इंद्रियों पर नियंत्रण की शक्ति बढ़ती है। मौनी अमावस्या को भगवान विष्णु और शिव जी दोनों की पूजा करनी चाहिए। पीपल में आर्घ्य देकर दीप जलाना चाहिए और उसकी परिक्रमा करनी चाहिए। 
इस दिन नदी स्नान से अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलने की भी बात धर्म ग्रंथों में कही गई है। यदि यह अमावस्या सोमवार के दिन हो तो इसका महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है। सोमवार के साथ महाकुम्भ लगा हो तब इसका महत्व अनन्त हो जाता है। कई श्रद्धालु तो पूरे माघ माह गंगा तट पर कुटी बनाकर रहते है। उनका यह व्रत अमावस्या के दिन सम्पूर्ण होता है। जो लोग संगम पर नहीं जा पाते है वह अपने क्षेत्र में स्थित पवित्र नदी, सरोवर आदि पर स्नान करते है। स्नान के पश्चात क्षमता के अनुसार वस्त्र, अन्न, धन आदि का दान करना चाहिए। इस दिन तिल दान भी उत्तम बताया गया है। मान्यता है कि इस दिन मनु ऋषि का जन्म हुआ था। 

मौनी अमवास्या की कथा  (Mauni Amavasya Ki Katha)


प्राचीन काल में कांचीपुरी नगर में देवस्वामी नामक ब्राह्मण अपने परिवार सहित रहते थे। ब्राह्मण के परिवार में सात पुत्र तथा एक पुत्री थी। पुत्री विवाह योग्य हुई तो ब्राह्मण ने उसकी कुण्डली एक पण्डित को​ दिखाई। पुत्री की जन्मकुण्डली देखकर पंडित ने बताया कि उसकी पुत्री सप्तपदी होते-होते विधवा हो जाएगी। यदि वह सोमा पूजा करे तो यह वैधव्य दोष दूर हो सकता है। ब्राह्मण ने सोमा पूजा का विधान पूछा तो पंडित ने बताया कि सोमा एक धोबिन है जो सिंहल द्वीप में रहती है। यदि वह उसकी पुत्री के विवाह के समय मौजूद रहती है तो विवाद सफल हो सकता है। 
देवस्वामी ने अपने एक पुत्र और बेटी को सोमा को लाने के लिए सिंहल द्वीप के लिए रवाना कर दिया। दोनो भाई बहन सागर तट पहुंचे। वह दोनों वहां एक पेड़ के नीचे बैठकर सागर को पार करने की चिंता करने लगते है। उनकी बातों को उस पेड़ पर निवास कर रहे गिद्ध के बच्चे सुनते रहते है। वह उनकी स्थिति देखकर बहुत दुखी होते है। जब ​गिद्धों की मां आती है तो बच्चे भोजन नहीं करते। वह कहते है कि जब तक नीचे बैठे भाई—बहन भोजन नहीं करेंगे तब तब वे भी कुछ नहीं खाएंगे। 
बच्चों की बात सुनकर गिद्ध माता देवस्वामी के बेटे और बेटी के पास पहुंचती है और उन्हें भरोसा दिलाती है कि कि वह अगले दिन उन्हें सागर पार कराकर सिंहल द्वीप पहुंचा देगी। उसने दोनों को भोजन भी उपलब्ध कराया। अगले दिन वह गिद्ध माता की मदद से सिंहल द्वीप पहुंच जाते है। अपनी पहचान छिपाकर वह दोनों सोमा के घर के पास ही रहने लगते है। दोनों सुबह जल्दी उठकर सोमा का घर झाड़कर लीप देते थे। एक दिन सोमा ने अपनी बहुओं से पूछा कि यह काम कौन कर रहा? बहुओं कहा कि यह काम तो वहीं कर रही है लेकिन, सोमा को इस पर यकीन नहीं हुआ। अगले दिन वह रात भर नहीं सोती। सुबह उसे सारी सच्चाई का पता चल जाता है। कारण पूछने पर दोनों भाई बहन उसे सारी बात देते है और विवाह होने तक घर चलने का आग्रह करते है। सोमा उनकी भक्ति देखकर उनके साथ कांचीपुरी जाने को राजी हो जाती है। 
जाने से पहले वह बहुओं से कहती है कि उसकी अनुपस्थिति में यदि किसी का देहान्त हो जाए तो उसके शरीर को नष्ट नहीं करें। सोमा बहन-भाई के साथ कांचीपुरी पहुंच जाते है। गुणवती के विवाह का कार्यक्रम तय हो गया। सप्तपदी होते ही उसका पति मर गया। सोमा अपने पुण्यों से उसके पति को जीवित कर देती है। सोमा उन्हें आशीर्वाद देकर अपने घर चली गई। उधर गुणवती को पुण्य-फल देने से सोमा के पुत्र, जामाता तथा पति की मृत्यु हो गई। सोमा ने पुण्य फल संचित करने के लिए मार्ग में अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष की छाया में विष्णु जी का पूजन करके 108 परिक्रमाएं कीं। इसके पूर्ण होने पर उसके परिवार के मृतक लोग जीवित हो जाते है।

Share on Google Plus

About Tejas India

0 comments:

Post a Comment