ऋषि पंचमी का व्रत समस्त पापों का नष्ट करने वाला होता है। ऋषि पंचमी की व्रत कथा का महत्व स्वयं ब्रह्मा जी ने एक राजा को बताया था। प्राचीन मान्यता के अनुसार, ब्रह्मा जी ने राजा को ऋषि पंचमी व्रत की कथा सुनाई।
विदर्भ देश में उत्तंक नामक एक सदाचारी ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुशीला था। सुशीला पतिव्रता थी। उत्तंक के एक पुत्र तथा एक पुत्री थी। ब्राह्मण ने कन्या का विवाह कर दिया। लेकिन, दैवयोग से कुछ दिनों बाद वह विधवा हो गई। दु:खी ब्राह्मण दम्पति कन्या सहित गंगा तट पर कुटिया बनाकर रहने लगे।
एक दिन ब्राह्मण कन्या सो रही थी कि उसका शरीर कीड़ों से भर गया। कन्या ने सारी बात मां से कही। मां ने पति से सब कहते हुए पूछा- प्राणनाथ! मेरी साध्वी कन्या की यह गति होने का क्या कारण है?
उत्तंक ने ध्यान लगाकर जानकारी जुटाई। उसने बताया कि पूर्व जन्म में भी यह कन्या ब्राह्मणी थी। इसने रजस्वला होते ही बर्तन छू दिए थे। इसने ऋषि पंचमी का व्रत नहीं किया। इसलिए इसके शरीर में कीड़े पड़े हैं।
ऋषि पंचमी पूजन विधि
धर्म-शास्त्रों की मान्यता है कि रजस्वला स्त्री को तीन दिन अपवित्र माना जाता है। वह चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती है। यदि यह शुद्ध मन से अब भी ऋषि पंचमी का व्रत करें तो इसके सारे दु:ख दूर हो जाएंगे और अगले जन्म में अटल सौभाग्य प्राप्त करेगी।
पिता की आज्ञा से पुत्री ने विधिपूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत एवं पूजन किया। व्रत के प्रभाव से वह सारे दु:खों से मुक्त हो गई। अगले जन्म में उसे अटल सौभाग्य सहित अक्षय सुखों का भोग मिला।
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