सालासर धाम: बाबा के इन चमत्कारों का असर है कि यहां भक्तों का उमड़ता है सैलाब

राजस्थान के चूरू जिले के एक छोटे से कस्बे में स्थित सालासर बालाजी के इस प्राचीन मंदिर में हर साल लाखों भक्त हाजिरी लगाते है।



सालासर बालाजी की मान्यता राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, आसाम, पश्चिम बंगाल आदि में है। अब तो देश में कई जगह सालासर बालाजी के नाम पर मंदिर नजर आ जाएंगे, लेकिन सालासर बालाजी का असली और प्राचीन मंदिर राजस्थान के चूरू जिले के सालासर कस्बे में स्थित है। 

सालासर बालाजी में कभी भी चले जाए, भक्त बाबा के दरबार में हाजिरी लगाते नजर आ जाएंगे। नवरात्र, हनुमान जयंती पर यहां भक्त लंबी—लंबी लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार करते रहते हैं। चैत्र पूर्णिमा और आसोज पूर्णिमा को सालासर बालाजी का मेला आयोजित होता है। इस दौरान यहां बड़ी संख्या में पदयात्राएं भी आती है। बाबा के चमत्कारों का ही असर है कि यहां भक्तों का सैलाब उमड़ता है। साल में यहां लगभग सात लाख भक्त बाबा के दर्शन करने पहुंचते है। 
आइए जानते है, सालासर बालाजी की कथा—

सालासर बालाजी की कथा


सालासर बालाजी की जिस प्रतिमा की यहां पूजा होती वह नागपुर के आसोटा गांव में एक खेत में सैकड़ों साल पहले मिली थी। किसान परिवार ने इसकी पूजा करना शुरू कर दिया था। काले रंग की इस प्रतिमा में हनुमान जी राम और लक्ष्मण को कांधे पर लिए हुए थे। खेत में मूर्ति प्रकट होने के बात गांव में फैली और लोग इसकी पूजा करने लगे। 

आसोटा के ठाकुर चंपावत भी दर्शन को आए और वे इस चमत्कारी मूर्ति को अपनी हवेली में ले गए। उसी रात ठाकुर को बालाजी ने स्वप्न में दर्शन दिए और मूर्ति को सालासर पहुंचाने की आज्ञा दी। इसके बाद लाव—लश्कर के साथ बालाजी को सालासर के लिए रवाना किया गया। 

दूसरी तरफ, सालासर में हनुमान जी के परमभक्त मोहनदास जी को भी स्वप्न दर्शन हुआ, जिसमें बालाजी ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर सालासर में बसने आने की जानकारी दी। मूर्ति यहां पहुंची तो ठाकुर सालम सिंह, बाबा मोहनदास और ग्रामीणों ने हनुमान जी की मूर्ति का स्वागत किया। विक्रम सम्वत 1811 को सावन माह के शुक्ल पक्ष की नवमी को शनिवार के दिन मंदिर की स्थापना की गई थी। 


जानिए कौन थे मोहनदास जी


सालासर धाम की स्थापना में बाबा मोहनदास जी का अहम स्थान है। सालासर मंदिर में आज भी बाबा मोहनदास का धूणा जलता है। इसकी पवित्र भभूती लोग ले जाते है। गर्भगृह के मुख्यद्वार पर श्रीराम दरबार की मूर्ति के नीचे पांच मूर्तियां हैं मध्य में भक्त मोहनदास बैठे हैं, दाएं श्रीराम व हनुमान तथा बाएं मोहनदास जी की बहन कान्ही और पं सुखरामजी बहनोई आशीर्वाद देते दिखाए गए हैं।

मोहनदासजी सीकर के रूल्याणी गांव में लच्छीरामजी पाटोदिया के सबसे छोटे बेटे थे। वे बचपन से ही संत प्रवृत्ति के थे। पंडितों ने उनके जन्म के समय ही भविष्यवाणी कर दी थी कि वो आगे चलकर तेजस्वी संत बनेेंगें। मोहनदास के एक बहन थी, कान्ही। कान्ही ​का विवाह सालासर में हुआ। एक पुत्र उदय के जन्म के बाद वह विधवा हो गई। 

अपनी बहन को साहरा देने के लिए मोहनदास भी सालासर आ गए और इस दौरान उनके विवाह की चर्चा चली तो उन्होंने कहा कि जिससे भी उनके विवाह की चर्चा चलेगी, उसकी मौत हो जाएगी। कान्ही ने मोहनदासजी की बात का अनसुना कर​ विवाह की चर्चा चलाई। थोड़े समय पश्चात लड़की की मृत्यु हो गई। इसके बाद मोहनदास जी ने ब्रह्यचर्य व्रत धारण किया और भजन-कीर्तन में समय व्यतीत करने लगे।
  
एक दिन कान्ही अपने भाई और पुत्र को भेाजन करा रही थी, तभी द्वार पर किसी यााचक ने भिक्षा मांगी। कान्ही को जाने में कुछ देर हो गई। वह पहुंची तो उसे एक परछाई  नजर आई।कान्ही ने इस बारे में मोहनदास जी को बताया तो उन्होंने कहा कि वह तो स्वयं बालाजी थे। कान्ही को अपने बिलंब पर बहुत पश्चातप हुआ। कान्ही मोहनदास जी से बालाजी के दर्शन कराने का आग्रह करने लगी। 

कुछ महीने बाद एक साधु उनके द्धार पर आया। कान्ही और मोहनदास जी वहां पहुंचे तो साधु वेश में बालाजी ही थे। उन्होंने मोहनदास जी से वर मांगने के लिए कहा। इस पर मोहनदास ने बहन कान्ही को वास्वविक रूप में दर्शन देने का आग्रह किया। इसे बालाजी ने स्वीकार कर लिया। 

एक बार मोहनदास जी एंकात में एक शमी के वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहे थे। दूसरी तरफ, गांव वालों ने उन्हे पागल समझ लिया। एक दिन चमत्कार हुआ, पेड़ फलों से लद गया। एक लड़का ये फल लेने इसे पर चढ़ गया, तभी कुछ फल नीचे गिर पड़े। इससे मोहनदास जी ध्यान टूट गया। यह देख लड़का कांप उठा। मोहनदास जी ने उसे भय-मुक्त किया और कहा कि यह फल जहरीले हैं, इन्हे मत खाना। लड़का माना नही। उसने ये फल खा लिए। उसकी मृत्यु हो गई। यह बात गांव में आग की तरह फैल गई और लोग मोहनदास जी को मानने लगे। 

एक अन्य घटना के अनुसार, सालासर व उसके निकटवर्ती अनेक ग्रामों की देख-रेख का जिम्मा शोभासर के ठाकुर धीरज सिंह के पास था। एक दिन डाकुओं के विशाल जत्थे के गांव की ओर बढ़ने की सूचना मिली। ठाकुर के पास इतना भी वक्त नहीं था कि वो बीकानेर से सैन्य सहायता मंगवा सकते। अतंतः सालासर के ठाकुर सालम सिंह की सलाह पर दोनों बाबा मोहनदास की शरण में पहुंचे और मदद की गुहार लगाई।

बाबा ने उन्हें आश्वस्त किया और कहा कि बालाजी का नाम लेकर डाकुओं की पताका को उड़ा देना क्योंकि विजय पताका ही किसी भी सेना की शक्ति होती है। ठाकुरों ने वैसा ही किया। बालाजी का नाम लिया और डाकुओं की पताका को तलवार से उड़ा दिया। डाकू सरदार उनके चरणों में आ गिरा, इस तरह मोहनदास जी के प्रति दोनों की श्रद्वा बलवती होती चली गई। इसके बाद यहां भव्य मंदिर बनाने का संकल्प लिया गया।

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