अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। शरद पूर्णिमा के बाद कार्तिक मास शुरू हो जाता है। शरद पूर्णिमा को भगवान विष्णु, इंद्रराज, चंद्रमा और महालक्ष्मी की पूजा का विधान है।
शरद पूर्णिमा का व्रत Sharad Purnima Vrat
शरद पूर्णिमा के दिन प्रात:काल में व्रत का संकल्प लेना चाहिए। अपने इष्ट देव, महालक्ष्मी, विष्णु और इंद्र की घी का दीपक जलाकर पूजा करनी चाहिए। ब्राह्माणों को खीर का भोजन कराना चाहिए और उन्हें दान दक्षिणा प्रदान करनी चाहिए।
जहां पूजा की जाए वहां उपवास करने वाले जातक को लकड़ी की चौकी पर स्वास्तिक बनाकर पानी का लोटा भरकर रखना चाहिए। एक गिलास में गेहूं भरकर उसके ऊपर रुपया रखा जाना चाहिए। महिलाओं को गेहूं के 13 दाने हाथ में लेकर शरद पूर्णिमा की व्रत कथा सुननी चाहिए। गिलास और रुपया कथा कहने वाली स्त्रियों को पैर छुकर दिए जाते है। रात को चन्द्रमा को अर्ध्य देना चाहिए और इसके बाद ही भोजन करना चाहिए। शरद पूर्णिमा को मंदिर में खीर आदि दान करने का विधि-विधान है।
शरद पूर्णिमा की कथा Sharad Purnima Katha
प्राचीन काल की बात है। एक साहुकार के दो पुत्रियां थीं। इनमें से छोटी बेटी के संतान होते ही मर जाती थी। इसको लेकर साहुकार का परिवार और बेटी के ससुराल वाले बहुत दुखी थे। इस संबंध में पंडितों से पूछा तो उन्होंने बताया कि छोटी बेटी पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती है, इसलिए उसकी संतान जीवित नहीं रह पाती। बड़ी बेटी पूर्ण विधि विधान से पूर्णिमा का व्रत करती है, इसलिए उसके घर सुख समृद्धि है।
पंडितों की सलाह पर छोटी बेटी ने भी पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। उसके पुत्र हुआ, लेकिन वह शीघ्र ही मर गया। उसने मृत बेटे को एक पलंग पर लिटा दिया और सफेद कपड़े से ढक दिया।
वह बड़ी बहन के घर गई और उसे बुलाकर लाई। बड़ी बहन घर पहुंची तो उसे पलंग पर बैठने के लिए कहा। जैसे ही बड़ी पलंग पर बैठने लगी, उसके वस्त्र मृत बच्चे से छू गए। बच्चा जिंदा हो गया और रोने लगा। ये देख बडी बहन ने छोटी से कहा, ” तु मुझ पर हत्या का कंलक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता।“
तब छोटी बहन बोली, ” यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। “
उसके बाद पूरे शहर पूर्णिमा का पूरा व्रत करने का ढिंढोरा पिटवा दिया।
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